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तद्विप्रा॑सो विप॒न्यवो॑ जागृ॒वासः॒ समि॑न्धते। विष्णो॒र्यत्प॑र॒मं प॒दम् ॥४४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तत्। विप्रा॑सः। वि॒प॒न्यवः॑। जा॒गृ॒वास॒ इति॑ जागृ॒वासः॑। सम्। इ॒न्ध॒ते॒ ॥ विष्णोः॑। यत्। प॒र॒मम्। प॒दम् ॥४४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:34» मन्त्र:44


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (जागृवांसः) अविद्यारूप निद्रा से उठ के चेतन हुए (विपन्यवः) विशेषकर स्तुति करने योग्य वा ईश्वर की स्तुति करनेहारे (विप्रासः) बुद्धिमान् योगी लोग (विष्णोः) सर्वत्र अभिव्यापक परमात्मा का (यत्) जो (परमम्) उत्तम (पदम्) प्राप्त होने योग्य मोक्षदायी स्वरूप है, (तत्) उसको (सम्, इन्धते) सम्यक् प्रकाशित करते हैं, उनके सत्सङ्ग से तुम लोग भी वैसे होओ ॥४४ ॥
भावार्थभाषाः - जो योगाभ्यासादि सत्कर्मों को करके शुद्ध मन और आत्मावाले धार्मिक पुरुषार्थी जन हैं, वे ही व्यापक परमेश्वर के स्वरूप को जानने और उसको प्राप्त होने योग्य होते हैं, अन्य नहीं ॥४४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(तत्) (विप्रासः) मेधाविनो योगिनः (विपन्यवः) विशेषेण स्तोतुमर्हा ईश्वरस्य वा स्तावकाः (जागृवांसः) अविद्यानिद्रात उत्थाय जागरूकाः (सम्) (इन्धते) प्रकाशयन्ति (विष्णोः) सर्वत्राऽभिव्यापकस्य (यत्) (परमम्) प्रकृष्टम् (पदम्) प्रापणीयं मोक्षप्रदं स्वरूपम् ॥४४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या ये जागृवांसो विपन्यवो विप्रासो विष्णोर्यत्परमं पदमस्ति, तत्समिन्धते तत्सङ्गेन यूयमपि तादृशा भवत ॥४४ ॥
भावार्थभाषाः - ये योगाभ्यासादिना शुद्धान्तःकरणात्मानो धार्मिकाः पुरुषार्थिनो जनाः सन्ति, त एव व्यापकस्य परमेश्वरस्य स्वरूपं ज्ञातुं लब्धुं चार्हन्ति नेतरे ॥४४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे योगाभ्यास इत्यादी सत्कर्म करून आत्मा व मन शुद्ध करून धार्मिक व पुरुषार्थी बनतात तेच परमेश्वराच्या व्यापक स्वरूपाला जाणू शकतात व प्राप्तही करू शकतात, इतरांना ते शक्य होत नाही.